‘पच्चीस चौका डेढ सौ’
कहानी में मानवाधिकार-हनन का चित्रण – एक अध्ययन
डाॅ- के. वी. कृष्ण मोहन,
उपन्यासक,
हिन्दी विभाग, एस् आर आर – सी वी आर सरकारी महाविद्यालय
विजयवाडा-520010,चरवाणी 08121269348, 09441748429
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संसार के सभी प्राणियों को आजाद जीने का हक है । मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो अपने स्वार्थ केलिए दूसरों के अधिकारों को छीन लेता है। यह दुःख की बात है कि ‘‘आदमी पैदा तो आजाद होता है लेकिन वह हर जगह जंजीरों में बंधा हुआ है।‘‘ यह तो सच है कि आदमी अपने सारे अधिकारों के साथ आजाद पैदा होता हैं, लेकिन आदमी ही उनके सारे अधिकारों को छीनता है। जीवन के एक पहलू में कभी धर्म के नाम पर कभी रीति-रिवाज, मानवीय अधिकारों का हनन दिखाई देता है । कभी-कभी रक्षक ही भक्षक हो जाते हैं।
मानवाधिकार: अर्थ और स्वरूपः
मानवाधिकार वे अधिकार है जो व्यक्ति को मानव होने के नाते प्राप्त होते है। मानवाधिकार देश काल के साथ नहीं बदलते, बल्कि सदता और सर्वत्र मनुष्य होने के साथ ये अधिकार जुडे होते है। जहाॅ मानवाधिकारों से योजनाबद्ध तरीके से वंचित किया जाता है, वहाॅं मानवाधिकार हासिल करने केलिए निश्चित रूप से क्रांतिकारी बनना पडता है।‘‘ 1 किसी भी समय समाज के विकास का मूल आधार मानवाधिकार होते है। ऐसे समाज जिनमें मानवाधिकारों का संरक्षण और सम्मान नहीं होता वे सभ्यता की सदौड में पिछड जाते हैं । मानवाधिकारों की रक्षा की संकल्पना सदियों पुरानी है। संयुक्त राष्ट् संघ ने घोषित किया कि- सभी के लिए उपलब्धि का समान स्तर निर्धारित करना है। ‘‘ मानवाधिकारों की वैेश्विक घोषणा के अनुछेद 1 और 2 में स्पष्ट किया कि-‘‘सभी मनुष्य समान अधिकार और सम्मान लेकर जन्म लेते है। 2 और उन्हें वेैश्विक घोषणा में वर्णित सभी अधिकार और स्वतंत्रता ‘‘जाति, रंग, लिंग, भाषा, धर्म, राजनीतिक, अन्य विचार धारा, राष्ट्रीयता, सामाजिक मूल-संपत्ति, जन्म या अन्य स्थितियों के किसी भेद-भाव के बिना ‘‘ स्वतः मिल जाते है। अनुच्छेद उसे 21 तक उन राजनीतिक और नागरिक अधिकारों का उल्लेख किया गया है जिनका सभी मनुष्यों को अधिकार है।
1 जीवन स्वतंत्रता और सुरक्षा का अधिकार।
2 दासता और पराधीनता से मुक्ति।
3 सामाजिक सुरक्षा का अधिकार।
4 समुदाय के सांस्कृतिक जीवन में भाग लेने का अधिकार।
5 आने जाने की स्वतंत्रता, शरण लेने की स्वतंत्रता, राष्ट्रीयताअपनाने की स्वतंत्रता।
6 सरकार में शामिल होने और सरकारी नौकरी में आने का अधिकार।
7 आराम और विश्राम करने का अधिकार।
8 शिक्षा का अधिकार।
9 समुदाय के सांस्कृतिक जीवन में भाग लेने का अधिकार।
10 विचारों, आत्मचिंतन और कोई भी धर्म अपनाने की स्वतंत्रता, विचारधारा और अभिव्यक्ति का अधिकार।
11 ‘‘वैश्विक घोषणा से प्रेरणा पाकर संयुक्त राष्ट् के भीतर विभिन्न मुद्दों पर लगभग 80 प्रतिशत कन्वेन्शन और घोषणाएॅं हो चुकी है। छह कन्वेन्शनों में तो विशेषज्ञ संस्थाओं तक का गठन किया गया है। ये संस्थाएॅं संबद्ध देशों द्वारा संधि में निर्धारित अधिकारों के समुचित कार्यान्वयन पर नजर रखती है।‘‘ 4
स्वतंत्र भारत में संविधान समानता और स्वतंत्रता के अधिकार जैसे महत्वपूर्ण अधिकारों को मूल अधिकार के रूप मंे शामिल किया गया । भोजन, आश्रय, शिक्षा, और आजीविका के अधिकार को संविधान के भाग चार में जो, कि राज्य नीति का निदेशक सिद्धांत है इसे शामिल किया गया है। केंद्रीय स्तर पर 1933 में राष्ट्ीय मानवाधिकार आयोग के अलावा,दिसंबर 1999 तक उपलब्ध जानकारी के अनुसार ‘‘इस राज्यों में राज्य मानवाधिकार आयोगों का गठन किया जा चुका है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को नीति परिवर्तन, दंड और खासकर पुलिस द्वारा मानवाधिकार के हनन के मामले में जाॅच करने और मुआवर्जे की सिफारिश कराने का अधिकार दिया गया।‘‘ 5 यह सब कागज पर टिकी हुई बाते जैसी हो गयी है। आज कल पुलिस और प्रशासन के हाथों निर्दोष नागरिकों के दमन और शोषण के मामले आए दिन अखबारों में भरे रहते हैं । इससे पता चलता है कि भारत में मानवाधिकार रक्षा की स्थिति शोचनीय है। पिछडी जातियों, स्त्रियों, बच्चों, असहायों आदि के अधिकारों का ही ज्यादातर हनन होता है।
पच्चीस चौका डेढ सौैः- कहानी की शुरूआत में सुदीप नामक युवक अपनी पहली तनख्वाह के रूपये हाथ में थाम अभावों के गहरे अंधकार में रोशनी उम्मीद लिए भूतकाल के कडवे अनुभवों का स्मरण कर रहा है, साथ ही साथ यह भी महत्वपूर्ण बात है कि वह इतना रूपया एकसाथ पा रहा है। ‘‘सुदीप वर्तमान में जीना चाहता था । लेकिन भूतकाल उसका पीछा नहीं छोडता था। हर पल उसके भीतर वर्तमान और भूत की रस्साकसी चलती रहती थी । अभावांे ने कदम-कदम पर उसे छला था। फिर भी उसने स्वयं को बचाकर रखा । इसीलिए यह मामूली नौकरी भी उसके लिए बडी अहमियत रखती थी।‘‘ 6 इससे यह साबित होता है कि सुदीप एक स्वतंत्र व्यक्ति होकर भी उसे किसी कारण वश पराधीन होकर जीना पडा, पैसे के अभाव के कारण उसके साथ न्याय नहीं हुआ है। सुदीप जब चैथी कक्षा में था तब पच्चीस तक पहाडे याद करने थे। अध्यापक शिवनारायण मिश्र के कहने पर वह घर में भी पच्चीस का पहाडा कंठस्थ करने लगा ।‘‘पच्चीस एकस पच्चीस, पच्चीस दूनी पचास, पच्चीस तियाॅं पचहत्तर, पच्चीस चैका सौ..?‘‘ 7 सुदीप के पिताजी को भी पच्चीस का पहाड उनकी , जिंदगी का अहम पडाव था। जिसे वे अनेक बार अलग-अलग लोगों के बीच दाहरा चुके थे। जब भी उस घटना का जिक्र्र करते थे, उनके चेहरे पर एक अजीव सा विष्वास चमक उठता था। संुदी ने पच्चीस का पहाड दोराया और पच्चीस चैका सौ कहा उन्होने टोका। ‘‘नहीं बेट्टे …पच्चीस चैका सौ नहीं…पच्चीस चैका डेढ सौ…उन्होंने पूरे आत्मविश्वास से कहा।‘‘ 8
इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि सुदीप के पिताजी के जिंदगी में ‘‘पच्चीस चैका डेढ सौ‘‘ से संबंधित कुछ घटना घटी है। अनपढ होने के कारण वह पुस्तक में लिखे अक्षरों को न पढ सका था । वह केवल चैथरी की बातों पर यकीन करता था । इसके लिए वह पूरी घटना सुदीप को सुनाता है–‘‘ तेरे होने से पहले तेरी महतरी बीमार पडी थी। बचने की उम्मीद न थी । सहर के बडे डाक्टर से इलाज करवाया था । सारा खर्चा चैधरी ने ही तो दिया था । पूरे सौ का पत्ता…ये लम्बा नीले रंग का लोटा था।‘‘ 9 माॅं के ठीक होने के बाद सुदीप के पिताजी चैधरी से मिलने जाता है – चैधरी जी ने कहा, मॅंन्ने तेरे बुरे बख तमे मदद करी तो ईब तू ईमानदारी ते सारा पैसा चूका देना। सौ रूपये पर हर महीने पच्चीस रूपये ब्याज के बनते है । चार महीने हो गए है । ब्याज-ब्याज के हो गए है पच्चीस चैका डेढ सौ । तू आपणा आदमी है तेरे से ज्यादा क्या लेणा । डेढ सौ में से बीस रूपये कम कर दे । बीस रूपये तुझे छोड दिये । बचे एक सौ तीस । चार महीने का ब्याज एक सौ तीस अभी दे दें । बाकी रहा मूल गिब होगा दे देणा, महीने-के-महीने ब्याज देते रहणा।‘‘ 10 ‘‘ईबंु बता बेट्टे पच्चीस चैका डेढ सौ होते है या नहीं । चैधरी भले और इज्जतदार आदमी है, जो उन्होने बीस रूपये छोड दिए। नही तो भला इस जमान्ने में कोई छोड्डे है। 11
इन संवादो से स्पष्ट होता है कि चैधरी ने झूठ बोलकर सुदीप के पिता से ज्यादा ब्याज लिया है। दलितों को धोखा देने और अन्याय करने के ऐसे अनेक उदाहरण शोषण की व्यवस्था मंे भरे पडे हैं । मास्टर शिवनारायण मिश्र कुर्सी पर बैठे थे। बीडी का सुहा मारते हुए बोले ‘‘अबे ! चूहडे के, आगे बोलता क्यूं नही? भूल गिया क्या? सुदीप ने फिर पहाड शुरू किया । स्वाभाविक ढंग से पच्चीस चैका डेढ सौ कहा । मास्टर शिवनाराण मिश्र ने डाॅंटकर कहा-अबे! कालिया, डेढ सौ नही सौ….सौ।‘‘ 12 ‘‘सुदीप ने डरते-डरते कहा-मास्साहब! पिताजी कहते है पच्चीस चैका डेढ सौ होवे है।‘‘
मास्टर शिवनाराण गुस्से से उठे और खींचकर एक थप्पड उसके नाम पर रसीद किया। आॅखों तेरस्कार चीखा,‘‘ अबे! तेरा बाप इतना बडा विद्वान है तो यहाॅं क्या अपनी माॅं…। साले, तुम लोगों को चाहे कितना भी लिखाओ, पढाओ रहोगे वही के वही दिमाग कूडा करकट जो भरा है। पढाई लिखाई के संस्कार, तो तुम लोगों से आ ही नही सकते।‘‘ 13 ऐसे वह सच और झूठ असमंजस में जीतता है। बडे होने पर उसे चैधरी का असली चेहरा दिखाई पडता हैैै और पिता के साथ हुए विश्वासघात का चित्र स्पष्ट हो जाता है। सुदीप पिताजी को समझाने केलिए उनके हाथ में पच्चीस-पच्चीस रूपये के चार बंडल देता है। वह उन्हंे मिलाकर गिनते है।‘‘ अब देखते हैं पच्चीस चैका सौ होते है या डेढ सौ…..‘‘ 14
सुदीप रूपये गिन रहा था बोल-बोल कर सौ पर जाकर रूक गया । बोला ‘‘देखो पच्चीस चैका सौ हुए…डेढ सौ नहीं।‘‘ आखिर पिताजी को विश्वास हो गया सुदीप ठीक कह रहा है। पच्चीस चैका सौ ही होते है । झूठ-सच सामने था। यथार्थ के बोध से पिता के भीतर मानो रासायनिक परिवर्तन हो गया । उसकी आॅखों से एक अजीब सी वितृष्णा पनप रही थी, जिसे पराजय नही कहा जा सकता था, बल्कि विश्वास में छले जाने की गहन पीडा ही कहा जाएगा।‘‘ 15 इस कहानी में यह स्पष्ट किया गया है कि छल कपट से सुदीप के पिता पर झूठा ब्याज थोपकर चैधरी ने मानवीयता पर पर्दा डाल रखा था। इस प्रकार यह कहानी दलित व्यक्ति के शिक्षा के अधिकार से वंचित रखे जाने से जुडी है और संपन्न वर्ग द्वारा उसके षोशण के और एक रूप सामने लाती है।
संदर्भः
1.जगजीत सिंह: मानवाधिकार वायदे और हकीकत – पृं संः 09
2.जगजीत सिंह: मानवाधिकार वायदे और हकीकत – पृं संः 15
3.जगजीत सिंह: मानवाधिकार वायदे और हकीकत – पृं संः 17
4.जगजीत सिंह: मानवाधिकार वायदे और हकीकत – पृं संः 18
5.जगजीत सिंह: मानवाधिकार वायदे और हकीकत – पृं संः 31
6.ओमप्रकाश वाल्मिकी: – दलित कहानी संचयन संपादन-रमणी गुप्ता, पृ. संः 21
7. ओमप्रकाश वाल्मिकी: – दलित कहानी संचयन संपादन -रमणीगुप्ता, पृ. संः 23
8. ओमप्रकाश वाल्मिकी: – दलित कहानी संचयन संपादन -रमणीगुप्ता, पृ. संः 23
9. ओमप्रकाश वाल्मिकी: – दलित कहानी संचयन संपादन -रमणी गुप्ता, पृ. संः 24
10. ओमप्रकाश वाल्मिकी: – दलित कहानी संचयन संपादन -रमणी गुप्ता, पृ. संः 24
11. ओमप्रकाश वाल्मिकी: – दलित कहानी संचयन संपादन -रमणी गुप्ता, पृ. संः 24
12. ओमप्रकाश वाल्मिकी: – दलित कहानी संचयन संपादन -रमणी गुप्ता, पृ. संः 25
13. ओमप्रकाश वाल्मिकी: – दलित कहानी संचयन संपादन -रमणी गुप्ता, पृ. संः 25
14. ओमप्रकाश वाल्मिकी: – दलित कहानी संचयन संपादन -रमणी गुप्ता, पृ. संः 27
15. ओमप्रकाश वाल्मिकी: – दलित कहानी संचयन संपादन -रमणी गुप्ता, पृ. संः 27
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