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समकालीन हिन्दी कविता में भ्रष्टाचार

डाॅ.कर्रि सुधा (गोल्ड मेडलिस्ट), एम्.ए., एम.फिल्., पी.एच.डी.,

विभागाध्यक्ष – हिन्दी विभाग, विशाखा सरकारी महिला महाविद्यालय, विशाखपट्टणम्

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संपादक, तेजस्वी अस्तित्व

 

महान् पंडित चाणक्य के वक्तव्य स्मृति पटल में कुछ ऐसे विचरण करती रहती हेै कि जिस तरह पानी में तेैरने वाली मछली के पानी पीने का ज्ञान किसी को नहीं होता, ठीक उसी प्रकार सरकारी दफ्तरों में भ्रष्टाचार को अंजाम कब, कहाँ और कैसे दिया जा रहा है इसकी भनक तक नहीं पड़ती किसी को। कहते हैं ना कि आज के इस दौर में ”बेईमानी का काम पूरे ईमानदारी से किया जाता है। बांए हाथ से किये गए काम का बोध दाहिने हाथ तक को नहीं लगती।“ समकालीन समाज की स्थिति इसकी साक्षी है। इसमें अतिश्योक्ति नहीं है कि वर्तमान समाज में ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहाँ भ्रष्टाचार न हो। आर्थिक, राजनीतिक और औद्योगिक सभी क्षेत्रभ्रष्टाचार में लिप्त नज़र आते हैं। क्या जनता, क्या नेता और क्या सरकार- सभी एक ही रंग में सराबोर हैं। खास बात यह है कि भ्रष्टाचार पर अंकुश रखने वाले विभागों के कर्मचारी और अफसर सभी को यह विदित भी है। परन्तु अब यह परंपरा बन चुकी है। ”फ्रांसिसी यात्री बर्नियर के अनुसार शाहजहाँ और औरंगजेब के दरबार में एक परंपरा के रूप में भ्रष्टाचार व्याप्त था। उनका कहना था कि पूर्व में परंपरानुसार बड़े लोगों के पास खाली हाथ नहीं जाया करते थे। नज़राने की यह प्रथा शताब्दियों पुरानी है। आज नज़राने का निकटतम साथी भ्रष्टाचार व्यापक होता जा रहा है और अपनी गहरी जडें़़ जमाता जा रहा है। विडंम्बना तो इस बात की है कि भ्रष्टाचार उन सरकारी अफ्सरों जो महत्वपूर्ण पदों पर आसीन हैं उनमें भी व्याप्त है।“  ”साँंप“ के प्रतीक के द्वारा कवि त्रिलोचन समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को यों चित्रित करते हैं।

“इस महानगर में जहाँ भी जाता हूँ

कुर्सी पर एक साँप को

कुण्डली मारे बैठा पाता हूँ

सड़क पर जब मैं बेखबर चल रहा होता हूँ

चुपके से बगल से एक रंगी साँप सरक जाता है

पार्कों की घासों पर

इन्हें लहराते देखता हूँ

दफ्तरों और रेस्टारंटोें में

इनकी फुफकारें उठती हैं ।”

भ्रष्टाचार की व्याप्ति की कोई सीमा नहीं रहीं। जहाँ देखो वहीं भ्रष्टाचार नज़र आता है। उसका क्षेत्र अनंत है, असीम है। नेता, पत्रकार और बुद्धिजीवि सभी जैसे पैसों के दास बन चुके हैं। उन्हें पैसों से खरीद सकना शायद आज कठिन नहीं है। शायद उनकी अपनी दरें पृथक-पृथकहो सकती हैं। जहाँ देखो वहाँ पर भ्रष्टाचार ही दिखायी पड़ता है।

”निर्लिप्त के लिप्त होने की,

स्वाभिमानी के दरबारी बनने की,

 नेताओं की करवट बदलने की,

 पत्रकारों के संवाद देने की,

 औैर न देने की,

 बुद्धिजीवियों के आत्म-समर्पण की,

 मजबूरियाँ नहीं,

 मूल्यों के साईन-बोर्ड हैं।“

पत्र-पत्रिकाएँ भी भ्रष्टाचार को आश्रय देनेवाले हो गये। क्योंकि ये हमेशा सत्ताधारी दल के समर्थक ही होते हैं। उनके सिद्धांतों का विस्तृत प्रचार करते रहते हैं। प्रतिपक्ष दलों के सही सिद्धांतों को भी छापने से जैसे इन्हें परहेज़ होता है। कभी-कभी इनमें प्रकाशित विज्ञापन भी झूठे होते हैं। इन पर विश्वास रखकर कई लोग धोखा खाते हैं और अपना सर्वस्व खो देते हैं।जनता के लिए पत्रिका और अखबार अत्यन्त ही मूल्यवान है। उसके लिए तो पत्रिका और पत्रकार दोनों ही सर्वाधिक सम्मानित एवं विश्वसनीय हैं क्योंकि उनके माध्यम से जनता को सरकारी व गैरसरकारी दोनों ही प्रकार की खबरें व सूचनाएं मिलती हैं। विश्वास भी इतना कि जिसे अंधे विश्वास की संज्ञा दी जा सकती है।  इसी अंधे विश्वास के कारण जनता झूठे और बनावटी विज्ञापनों के चंगुल में जा फंसती है और उसे गहरा नुकसान उठवना पड़ता है और कई बार इसके गंभीर परिणाम भी हो सकते हैं। उदाहरणस्वरूप गाँव का मुखिया एक बार झूठ बोलता है तो उनके झूठ की वकालत ये अखबार करते हैंः ”गाँव के मुखिया से हमने जो सुना सब झूठ था।झूठ की करते वकालत थे वहाँ अखबार भी।“ आम आदमी के भूख की पीड़ा की चिन्ता किसी को भी नहीं है। अनाज सहित अन्य खाद्य सामग्री गोदामों में दबा दिया जाता है ताकि उस वस्तु की किल्लत पड़ जाए और चारों ओर मूल्य वृद्धि हो जाए। इससे मुनाफाखोरों को वस्तुओं पर अधिक मुनाफा मिल जाता है। इन आढ़तियों को जितना मिलता है उतना खा लेते है और जो बचा उसे गोदामों में छुपा लेते हैं और यदि उनपर कोई अंगुली उठाए तो उसपर जुल्मों सितम की सीमाएं तोड़ दी जाती है। शायद सरकारी तंत्र की मिली-भगत से उसे कठोर यातनाएं व कड़ी सजातक भुगतनी पड़ जाती है। निर्धारित नीति के अनुसार किसी भी राज्य में शांति बनाये रखने के लिए न्याय की रक्षा पुलिस द्वारा होना अत्यंत आवश्यक है। राज-व्यवस्था के ये दो ऐसे अंग हैं जिनका सीधा संबंध जनता के साथ होता है। अपराधी और निर्दोश दोनों ही वर्गों से उसका सम्बन्ध होता है। कुछ भ्रष्टाचारी पुलीस अधिकारी अपराधियों को छोड़कर, निरीह जनता पर अत्याचार भी करते हैं। पुलिस विभाग की भाँति भारत का न्यायतंत्रभी विकृतियों से भरा हुआ लगता है। ऐसा लगता है कि जैसे न्याय को भी आजकल लोग खरीद रहे हैं। जिस देश की न्यायतंत्रं शिथिल हो वह देश अन्याय और अत्याचारों से कभी मुक्त नहीं हो सकता। कानून की कठोरता के बिना किसी भी देश में स्थायी शान्ति स्थापित नहीं की जा सकती। वर्तमान स्थिति तो यह है कि न्यायतंत्र अब पक्ष या राजनीतिक पार्टी के अवलम्ब पर चल रहा है। जिस पक्ष के पास सत्ता और संपत्ति हो वह अपनी इच्छानुसार कानून को मोड़ सकता है।

पुलिस विभाग की रिश्वतखोरी और आम-आदमी की विवशता का यथार्थ चित्रण समकालीन कवि समय-समय पर कर रहे हैं। आज आम आदमी को पुलिस से कोई राहत नहीं है। वह पैसा नहीं चुका सकता, परिणामतः न्याय से वंचित रहता है। रिश्वत न देने की विवशता में वह पुलिस कर्मी उस आदमी से गवाह और डाॅक्टरी रिपोर्ट की माॅंग करता है। सिपाही बलदेव के स्वयं पुलिस शाखा में सिपाही होने के बावजूद भी अपनी माँ की मृत्यु के बाद जब वह वापस लौटकर थाने जाता है तो पाता है कि एक दीवान पिटे हुये व्यक्ति की रिपोर्ट लिखने के लिए रिश्वत माॅंग रहा है। रिश्वत के अभाव में रिपोर्ट नहीं लिखता:

”दीवान कहता है

 किस कलम से करूॅं

 चाॅंदी की कलम से करूॅं

 सोने की कलम से करूॅं

 कि लकड़ी की कलम से करूॅं

 मार खाया हुआ आदमी रिसियाता है

 ”कानून की कलम से करो“

 कानून की कलम लकडी की होती है

 दीवान कहता है कल आना,

 मगर अपना गवाह भी साथ लाना

 और किसी डाॅक्टर से यह भी लिखवा लाना

 कि तुम मार खायी ही खायी है।“

कानून आम आदमी के लिए काम नहीं आ रहा है। वह भी अमीरों के हाथों में है। न्याय के नाम पर अन्याय हो रहा हैं। लगता है जैसे संविधान में जितने कानून लिखे गए वो केवल आम आदमी के पालनार्थ हैं। खास लोगों का कानून से न तो कोई मतलब ही है और न ही उसका कुछ बिगाड़ सकती है। दूसरी तरफ संविधान के पन्नों पर जो सुविधाएं आम आदमी के लिए अंकित की गई हैं आज वो सिर्फ खास आदमी/लोगों तक ही पहुँच पाती है। यानि जैसे कानून का पालन आम आदमी के लिए और सुविधा का सेवन खास आदमी के लिए होकर रह गया है।   आजकल सरकारी नौकरी में लगे हुए लोेग वेतन को बचाकर ऊपर की आमदनी पर जी रहे हैं। इस स्थिति का मार्मिक चित्रण कवि यूँ प्रस्तुत करते हैं:

”स्वधर्म हो गया है वेतन का बचाना

 ऊपर की आमदानी का पैसा खाना

         ज्यादा से ज्यादा नाशाभज कमाना

 तरह और तरकीब से पकड़ में न आना

 क्या खूब है जमाना।“

वर्तमान समाज में मानवता का ह्रास हो रहा है। न्याय और धर्म के प्रति मानव का विश्वास टलता जा रहा है। मानवता के लिए आज जनता तड़प रही है। धर्म, अर्थ आदि के लिए वे बहुत दिनों से प्रतीक्षा कर रही है। लेकिन स्थिति ऐसी कि जैसे इस आशा की पूर्ति कभी भी नहीं हो पाएगी। मानव देवता और राक्षसों के रूप में लड़ रहे हैंः

”मनु का पुत्र युगों से

 खोई मानवता का प्यासा,

 धर्म अर्थ की रीति-नीति से

 पूरी हुई न आशा।

 हाथ पसारे रही सभ्यता

 न्यायालय के द्वारे।

 पक्ष-विपक्षों की छाया में

क्हँ न्याय का दर्शन

 देव दानव बन मानव

 खो देते हैं मानव पन।“

वर्तमान न्याय व्यवस्था को हत्यारी व्यवस्था कहते हुये ये कवि कहते हैं कि किसी की हत्या कहीं भी संभव है। आज की कानून व्यवस्था विसंगतिपूर्ण है। समान अपराध के लिए आम आदमी की तो गिरफतारी, वारण्ट एवं सजा का प्रावधान है और सŸााधारी या पैसे वाले को कानून ”नाम“ से जानता है, उसके काम को नजर-अंदाज कर देता है। अर्थात् उसे अपराध करने की पूरी छूट होती है शायद । व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग पुलिस भी है। असली अपराधी तो पुलिस का जैसे हिस्सेदार होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि वास्तव में जो लोग अपराधी हैं, वे बचकर भाग रहे हैं निरपराधी, अनाड़़़ी लोग पुलिसों के कबंध हस्तों में फँस जा रहे हैं। इस संदर्भ में लीलाधर जगूड़ी यों कहते हैं:

”पुलिसवालों पर आदमियों की आॅंखें थीं

 इसलिए रंगतू की नंगी औरत बाहर न आ सकी।“

पुलिस कर्मी इतने भ्रष्टाचार के आदी बनते जा रहे हैं कि उनमें कर्तव्य बोध तभी जगती है जब उन्हें रिश्वत मिलती है। नागरिकता के नाम पर मानवता का ह्रास होता जा रहा है। बलदेव जब माँ को अस्पताल पहँचाने के लिए पुलिस वालों से गाड़ी पूछता है तो वे कहते हैंः

”पुलिस की गाड़ी अपराधियों को पकड़ने के लिए

 घर पर मरो या अस्पताल में मरो

 सड़़क पर मरो या श्मशान घाट पर पहुँचकर मरो

 मरना कहीं भी अपराध नहीं है ? ? ? ?

 आखिर मरनेवाले को कौन पकड़ सकता है

 अकसर हमारे पकड़े हुये भी मर जाते हैं।“

              वर्तमान पुलिस विभाग तो भ्रष्टाचार का गढ़ माना जाता है। आज की पुलिस स्वयं अपराधियों से मिली हुई होती है। आज तो कोई व्यक्ति यदि रिपोर्ट करने थाने में जाता है तो पुलिस वाले उसे भी मुज़रिम बनाकर उस पर अत्याचार करते हैं। इसीलिए उनके प्रति दिन-प्रति-दिन लोगों का विश्वास कम होता जा रहा है। पुलिस को रक्षक न मानकर भक्षक समझा जा रहे हैं। सच्ची न्याय व्यवस्था वही होती है जो तटस्थ रहकर निश्पक्ष रूप से फैसला दे सके। न्यायाधीश को सदा बंधुप्रीति से दूर रहना चाहिए। न्याय निर्णय करते समय सारी स्थितियों को जानकर, निर्णय लेना चाहिए।

”न्याय

 व्यक्तियों को नहीं

 संबंधों को नहीं, बल्कि

 उत्पन्न स्थितियों को देखता है

 और हमें तथा इतिहास को

इसी की प्रतीक्षा है।“

                  वर्तमान न्याय व्यवस्था ऐसी है कि जो न्याय और अन्याय के बीच विभाजक रेखा को पहचानने में थोड़ा पीछड़ सी गई है। अगर कोई सत्य पर टिकने का साहस कर रहा है तो उसे कई कठिनाइयों को झेलना पड़ता है। इसलिए समस्या का शास्वत समाधान ढूंढना नितान्त आवश्यक है एवं जनता में मानव मूल्यों के प्रति चेतना प्रदान करना हेै।


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