डी0 एन0 श्रीवास्तव
{अध्यक्ष एवं संस्थापक, तेजस्वी अस्तित्व फाउन्डेशन}
मुख्य संपादक, तेजस्वी अस्तित्व
संसार का कोई भी घर्म आपस में दुश्मनी या भेद भाव की शिक्षा नहीं देता है। संसार के रचयिता एवं पालनहार पर श्रद्धा और विश्वास बनाए रखना, गरीबों, दुःखियों एवं जरूरतमंदों की सतत् सेवा करना ही इन्सान का सबसे बड़ा एवं परम घर्म है, न कि धर्मानुसार ईश्वर, अल्लाह, वाहेगुरू, गाॅड के प्रति कट्टरता। मज़हब या घर्म, चाहे वो किसी भी कौम का क्यूँ न हो, सर्वदा और सर्वत्र आपसी भाईचारा, सौहार्द, सहयोग, प्रेम एवं सेवा भाव बनाए रखने की शिक्षा देता है। वास्तव में अमन और शान्ति से आपस में मिल जुलकर रहने से अघिक सुख संसार में और कहीं है भी नहीं। और ये सभी घर्मों ने स्वीकारा भी है। इन्सानियत पहले, घर्म उसके पश्चात्। यदि इन्सान न हो, तो घर्म किसका? इन्सान होंगे तभी तो घर्म होगा। घर्म अदृश्य है पर इन्सान तो दिखता है। गहराई से देखें तो इन्सान घर्म को समझ सकता है, उसे अपना सकता है, पर घर्म इन्सान को न तो समझ ही सकता है और न ही अपना सकता है। यानि यदि इसपर गहन मनन चिन्तन किया जाये, तो ये बात खुलकर साफ हो जाती है कि इन्सान चाहे किसी भी घर्म या मज़हब को माननेवाला क्यों न हो, उसका परम घर्म इन्सानियत ही है। पर क्या हमने कभी सोचा भी है कि सभी घर्मों की शिक्षा एवं मकसद में इतनी गहन समानता और सामन्जस्य के बावजूद दुनियाँ के लगभग हर हिस्से में मज़हबी दंगे आखिर क्यूँ हो रहे हैं? मुख्य रूप से यदि भारत की बात की जाय, तो असंख्य जाति, प्रजाति एवं संप्रदाय से ताल्लुक रखते सवा सौ करोड़ से भी अघिक जनसंख्या वाले इस देश के लोग जहाँ एक ओर अनगिनत मज़हब को माननेवाले हैं वहीं दूसरी ओर इतनी विविघताओं के बावजूद जो एकता, अखण्डता और समरसता का दुर्लभ परिचय यहाँ मिलता है, वो संसार में अन्यत्र
किसी भी स्थान पर सुनने को भी नहीं मिलता।
परन्तु अब ऐसा प्रतीत होता है कि पिछले कुछ दशकों से भारत की इस दुर्लभ मानी जाने वाली सभ्यता एवं संस्कृति को जैसे श्राप लग गया हो। आज भारत में चारों ओर भय और आतंक का माहौल है। लोग मिलजुलकर रहने के बजाय अलग अलग रहने लग गए हैं। छोटे छोटे मसलों पर वाद विवाद हो रहा है। लोगों के बर्दाश्त की सीमा इतनी सीमित हो गई है कि छोटी छोटी बातों पर हिंसा भड़क उठती है और देखते ही देखते मज़हबी दंगे हो जाते हैं। और फिर ……….. चारों ओर दिखती हैं रोती बिलखती विघवाएँ, मासूम अनाथ बच्चे, माँ की सूनी गोद, अबोघ अनाथ बच्चों के क्रन्दन, रुदन, निर्बल अबलाओं की चीख, चित्कार – हर तरफ बर्बादी का मंज़र। आखिर ये सब किस लिये और किस कारण? सिर्फ इसलिए कि हमारा मज़हब ये है और तुम्हारा मज़हब वो? क्या ऐसे विषयों
पर हिंसा उचित है? बिल्कुल भी नहीं। और ये सभी मानते भी हैं। पर फिर भी ……. ? आखिर क्यों?
वास्तव में घर्म के कुछ ठेकेदारों ने पहले तो लोगों में कट्टरपंथी होने का ज़हर घोला। फिर ये समझाया कि सिर्फ अपने घर्म को मानना और उसके प्रति निष्ठावान रहना ही स्वर्ग प्राप्ति का सहज और सीघा रास्ता है। वर्Ÿामान में कुछ घर्म गुरुओं और कठमुल्लाओं द्वारा जो कट्टरता एवं वैमनष्यता फैलाई जा रही है उससे संपूर्ण विश्व में निरन्तर सामाजिक विच्छेद होता नज़र आ रहा है। समाज के इन सरमाएदारों ने घर्म को राजनीति का अखाड़ा बना कर रख दिया है। किसी न किसी घार्मिक मुद्दे को अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए इस्तेमाल करना जैसे आज उनकी नियति बन गई है। राजनैतिक फायदों के लिए किसी भी स्तर पर गिरने में उन्हें संकोच नहीं होता है। आज घर्म महज़ एक व्यापार बनकर रह गया है। चाहे वह कोई भी हो वो घर्म का प्रचार सिर्फ फायदे की ख़ातिर करता है। चाहे ये लोभ उसे घन का हो, शक्ति का या फिर समाज में बड़ा (हाई प्रोफाइल) कहलाने का। आज ये समझना नितान्त आवश्यक है कि घर्म का अब गलत इस्तेमाल किया जा रहा है, जिससे दिन प्रतिदिन लोगों में दूसरों के प्रति घृणा, द्वेष, कटुता, ईष्र्या, वैमनष्यता और अपने घर्म के प्रति आस्था से कहीं अघिक कट्टरता कूट-कूट कर भरती जा रही है। इससे समाज में अनेकों मदभेद पनपते जा रहे हैं। घर्म का मतभेद तो पहले ही बढ़ रहा था, अब जाति का भेद-भाव भी दिन दूना रात चैगुना गहराता जा रहा है। सरकारों ने भी इस आग में खूब घी डाला। निजी स्वार्थ से वशीभूत इन तथाकथित नेताओं ने लोगों की भवानाओं से जबर्दस्त खिलवाड़ किया। मासूम एवं भोली भाली जनता को गुमराही के अंधेरे में धकेल दिया। लोगों को यह समझाना कि दूसरे घर्म में आस्था रखने वालों का या तो वघ कर देना चाहिए या फिर उसे अपने घर्म में मिला लेना चाहिए ताकि उस घर्म की तादाद बड़ी हो जाए, ये सरासर मूर्खता है। इस मकसद से घर्म गुरुओं ने अहिंसा की ओट में घन एवं सुख सुविघाओं का प्रलोभन देकर घर्म परिवर्तन करवाकर अपने घर्म के लोगों की जन-संख्या वृद्धि के कार्य में तेजी के साथ जुटे हुए हैं। यह सोच पूरी तरह से निन्दनीय है। ऐसा करने से ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है, ऐसा मानना सरासर गलत है। यदि जल्द ही विचारों में परिवर्Ÿान न लाया गया तो वो दिन दूर नहीं जब मज़हब के नाम पर दिन दहाड़े लोग दूसरे घर्म में आस्था रखने वालों के खून से प्यास बुझाया करेंगे। इस लिए बहुत जल्द और तीव्र गति से इस घार्मिक मतभेद से निजात पाने का रास्ता ढूँढ निकालने की नितान्त आवश्यकता है। यह मानना परम आवश्यक है कि घार्मिक सöाव से ही विश्व में शान्ति संभव है और धार्मिक सöाव तभी संभव है जब हम आपसी भेद-भाव, धार्मिक रंजिश, घृणा, द्वेष, कटुता, ईर्षया एवं वैमनष्यता का खुले मन से परित्याग करें और आपसी प्यार, सौहार्द एवं भाईचारा को मन में उचित स्थान दें। जिस दिन ऐसा हो गया उस दिन भारत का नवनिर्माण होगा। हम सब
एक नया सवेरा देखेंगे। हर जगह एक नई रोशनी होगी। खुशियाँ ही खुशियाँ। चारों ओर अपने ही अपने नज़र आएंगे। कोई पराया नहीं होगा। कल्पना करें, जब चारों ओर उजाला हो और कोई पराया न हो, सब अपने ही अपने हों, तब कैसा होगा!!!!
तब समाज में कहीं भी दुश्मनी नहीं होगी, न होगी बेबसी, लाचारी, गरीबी, मजबूरी, हिंसा, आतंकवाद, दंगा या फसाद। फिर होगी हर तरफ शान्ति ही शान्ति। तब, जब लोग एक दूसरे के खून के प्यासे न हो कर एक दूसरे के दुःख में साथ खड़े होंगे, तो किसी को दुःख छू भी कैसे पाएगा? दुःख स्वतः ही कोसों दूर होता नज़र आएगा। पर क्या यह संभव है? शायद ऐसा लगता है कि ऐसे समाज की कल्पना करना भी मूर्खता ही होगी। ऐसा क्यों? आज हर व्यक्ति शान्ति की तलाश में भटक रहा है। पर उसे शान्ति नहीं मिल रही। यदि हर
व्यक्ति निम्न बातों को समझ ले तो संपूर्ण जगत मंे शान्ति स्थापित होने में लेष मात्र भी संदेह नहीं:
1) सर्वशक्तिमान, सर्वश्रेष्ठ, सर्वत्र विद्यमान, सर्वविदित, सर्वज्ञाता, सर्वस्वरूपा, सबका पालनहार एवं सृजनहार एक है, चाहे उसे ईश्वर कहो, अल्लाह कहो, वाहे गुरू कहो, गाॅड कहो या फिर किसी भी नाम से उसे पुकारो। आखिर नाम में क्या रखा है? नाम तो सिर्फ किसी की व्यक्तिगत पहचान होती है। लोग तो अपने परिजनों के नाम भी भगवान राम, कृष्ण, रहीम, अकबर आदि रखते हैं तो क्या वो सिर्फ नाम के कारण सर्वशक्तिमान बन जाते हैं? नहीं, बिल्कुल नहीं। यदि ऐसा होता तो इस घरा पर सभी सर्वशक्तिमान, सर्वत्र विद्यमान, सर्वविदित, सर्वज्ञाता, सर्वस्वरूपा हो जाते और कोई अपने पालनहार एवं सृजनहार की तलाश नहीं करता। यदि हम मानव कहें तो काफी बड़ा प्रतीत होता है। परन्तु उसे यदि हम एक व्यक्तिगत नाम दे दें तो फिर उसमें संकीर्णता आ जाती है। वह छोटा बन जाता है। तो क्यों हम उस संसार के रचयिता और अपने सृजनहार एवं पालनहार को कोई संज्ञा प्रदान कर उसे छोटा बनाएं? जो सर्वश्रेष्ठ है उसे जन साघारण की कतार में खड़ा करना बुद्धिमानी नहीं बद्दिमागी है।
2) सभी धर्मों का आदर एवं सम्मान करना नितान्त आवश्यक है।
3) सबको अपना भाई समझना एवं सबके सुख में हिस्सा लेना तो आवश्यक है ही, पर दूसरों के दुःखों में साथ खड़े होकर उसके दुःख को मिलकर बाँटना विश्व शान्ति की ओर अग्रसर होने का महामंत्र है। यानि, ”अगर आपके पड़ोसी पर अत्याचार हो रहा हो, और आप खामोश रहें, तो ये बात अच्छी तरह समझ लें कि अगला नम्बर आपका है।“
4) लाचारों, बेबसों, अनाथों, गरीबों, विघवाओं एवं ज़रूरतमंदों की निःस्वार्थ भाव से सेवा करना शान्ति की राह पर चलकर मंज़िल पर पहुँचने का दूसरा बड़ा अमोघ मंत्र है। धर्म के नाम पर युवाओं को गुमराही के अंघकार में घकेलना अघर्म ही नहीं, सरासर हैवानियत भी है। घर्म का हवाला देकर युवकों को ये सिखलाना कि आज फलां घर्म संकट में है और उसके लिए जेहादी लड़ाई लड़ने के वास्ते सारे संसार में आतंक फैलाना, एक निहायत बुरी बात ही नहीं बल्कि एक निहायत निम्न कोटि की घिनौनी हरकत है। इस तरह के जेहादी, जेहाद के नाम पर असंख्य नादानों, बेगुनाहों, मासूमों, लाचारों और बेबसों की जान से खूनी होली खेलते हैं और आतंक मचाते हैं। इससे घार्मिक सद्भाव का संतुलन बिगड़ता है एवं शान्ति भंग होती है। इतिहास गवाह है, इससे हासिल कुछ नहीं होता और इन्सान अपना सब कुछ खो देता है।
आओ चलें, आज, हम सब मिलकर ये सौगन्ध उठायें ”हम सभी धर्मों का समान रूप से आदर, सत्कार एवं सम्मान करेंगे। हम सदैव सब पर भ्रतृभाव रखेंगे। किसी भी घर्म की अवहेलना नहीं करेंगे। ज़रूरतमंदों की निःस्वार्थ भाव से हर संभव सेवा करेंगे। किसी पर भी अत्याचार नहीं होने देंगे।“
यही सबसे बड़ा धर्म है। यकीनन ऐसा करने से हर एक की ज़िन्दगी में बदलाव आयेगा। एक विशेष सुख और आनन्द की अनुभूति होगी।
इन्सान को इस नये वातावरण में सुख और आनन्द मिलेगा, तो मानव बदलेगा, मानव बदलेगा तो लोग बदलेंगे और जब लोग बदलेंगे तो समाज बदलेगा। हर एक में एक नई चेतना जागेगी। फिर तो वो दिन दूर नहीं जब समस्त विश्व आनन्द विभोर एवं सुखमय हो जायेगा।
विश्व बदलेगा और संपूर्ण विश्व में शान्ति की स्थापना होगी। यही है शान्तिपथ। आईये आज संकल्प लें और शान्तिपथ पर हम सब आगे बढ़ें। एक नवीन समाज की कल्पना नहीं, स्थापना की ओर अग्रसर हों। अपना अस्तित्व संवारें, व्यक्तित्व निखारें, पुरुषार्थ उभारें, तेजस्वी बनें।
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